
कारगिल युद्ध को 20 सालों से ज्य़ादा हो चुके हैं। लेकिन आज भी ये कैप्टन बिक्रम बतरा का ये दिल मांगे मोर। भारतीय सेना के ना जाने कितने ही अफसरों और सैनिकों को कुछ कर गुजरने का जज्बा देता है। शहीद कैप्टन बतरा ही क्यों, ग्रेनेडियर योगेंद्र यादव, राइफलमैन संजय कुमार, शहीद कैप्टन मनोज पांडे, शहीद कैप्टन अनुज नायर और कैप्टन नीकेजाकुओ कैंगुरूसे जैसे कितने ही 20-22 साल ने के नौजवान अफ़सरों और जवानों ने ऊंचाई पर बैठे दुश्मन से ना सिर्फ अपनी ज़मीन खाली करवाई। बल्कि उन्हें ऐसा मारकर भगाया कि अब वो ऐसा करने की सोचते भी नहीं हैं। लेकिन इस युद्द में हमने अपने 577 फौजी भाइयों को खोया था। आज विजय दिवस पर हम इनमें से कुछ की कहानी लिख रहे हैं।
शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा (परम वीर चक्र)
हिमाचल के पालमपुर में जन्में कैप्टन विक्रम बतरा जब शहीद हुए तो उनकी उम्र महज 24 साल थी।
इंडियन मिलिट्री एकेडमी से पासआउट होने के बाद 6 दिसंबर, 1997 को लेफ्टिनेंट के तौर पर सेना में भर्ती हुए। कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन 13 जम्मू एंड कश्मीर रायफल 6 जून को द्रास पहुंची। 13 दिन के बाद यानि19 जून को कैप्टन बत्रा को प्वाइंट 5140 को फिर से अपने कब्जे में लेने का आदेश हुआ। जब वो इस चोटी पर कब्जे के लिए निकले तो ऊपर बैठा दुश्मन गोलियों, ग्रेनेड और राकेट लांचर से हमला कर रहा था। लेकिन कैप्टन विक्रम बतरा और उनके साथियों ने इन सबका मुकाबला करते हुए इस चोटी पर कब्जा कर लिया। इस जीत से उत्साहित उन्हें और उनके साथियों को 17 हज़ार फीट की ऊंचाई वाली प्वाइंट 4875 पर कब्जा करने का आदेश हो गया। अब तक वो भारत और पाकिस्तान दोनों फोजों में शेरशाह के नाम से मशहूर हो गए थे। पाकिस्तानी फौज 16,000 फीट की ऊंचाई पर थीं और बर्फ से ढ़कीं चट्टानें 80 डिग्री के कोण पर तिरछी थीं।
7 जुलाई की रात वे और उनके सिपाहियों ने चढ़ाई शुरू की। साथी अफसर अनुज नायर के साथ हमला किया। एक जूनियर की मदद को आगे आने पर दुश्मनों ने उनपर गोलियां चलाईं, उन्होंने ग्रेनेड फेंककर पांच को मार गिराया लेकिन एक गोली आकर सीधा उनके सीने में लगी। अगली सुबह तक 4875 चोटी पर भारत का झंडा फहरा रहा था। इसे विक्रम बत्रा टॉप नाम दिया गया। उन्हें परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया।
शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडे (मरणोपरांत परम वीर चक्र)
उत्तर प्रदेश के सीतापुर में जन्मे कैप्टन मनोज कुमार पांडे को कारगिल युद्ध के दौरान कैप्टन मनोज पांडे को उन्होंने बटालिक सेक्टर से दुश्मन सैनिकों को खदेड़ का हुकमा हुआ। 11 जून को उन्होंने इस इलाके से दुशमन को भगा दिया। इसके बाद उन्हें जुबार टॉप पर कब्जा करने का आदेश हुआ। जुबार के लिए भयंकर लड़ाई हुई। ऊपर से दुशमन लगातार गोलियां और बम फैंक रहा था। लेकिन मनोज पांडे और गोरखा बटालियन के जवान ऊपर चढ़ते ही जा रहे थे। कंधे और पैर में गोली लगने के बावजूद मनोज दुश्मन के पहले बंकर में घुसे। हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मारकर पहला बंकर खत्म कर दिया। बस फिर क्या था। बाकी साथियों ने भी सैनिकों ने दुश्मन पर धावा बोल दिया। अपने घावों की परवाह किए बिना वे एक बंकर से दूसरे बंकर में हमला करते गए। गोलियां लगने के बावजूद उस रात कैप्टन मनोज जब तक सांसे चलती रही खुद भी लड़ते रहे और अपने साथियों का उत्साह बढ़ाते रहे। आखिर बंगर पर कब्जे के बाद कैप्टन मनोज पांडे शहीद हो गए। उन्हें ‘हीरो ऑफ बटालिक’ भी कहा जाता है।
राइफलमैन संजय कुमार (परमवीर चक्र)
अब हिमाचल के ही एक ओर वीर की कहानी आपको बताते हैं। ये हैं राइफलमैन संजय कुमार। ये मैट्रिक पास करने के जुलाई 1996 में फौज में शामिल हो गए। जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ तो उन्होंने खुद आगे बढ़कर फ्लैट टॉप प्वाइंट 4875 पर हमला करने वाली अगली टीम में शामिल होने की इच्छा जताई।
जब उनकी बटालिन आगे बढ़ रही थी तो अचानक एक जगह से दुश्मन ने ओटोमेटिक गन ने जबरदस्त गोलीबारी शुरू कर दी और उनका आगे बढ़ना रूक गया। रात के अंधेरे में संजय धीरे धीरे वहां पहुंचे जहां से गोलियां चलाई जा रही थी। फिर एकाएक हमला करने आमने सामने की लड़ाई में तीन दुश्मन को मार गिराया। हालांकि इस दौरान वो घायल हो गए। लेकिन फिर भी लड़ते रहे। इस आकस्मिक आक्रमण से दुश्मन बौखला कर भाग खड़ा हुआ और इस भगदड़ में दुश्मन अपनी यूनीवर्सल मशीनगन भी छोड़ गया। संजय कुमार ने इसी गन से दुश्मन का ही सफाया शुरू कर दिया। इसके बाद पूरी टुकड़ी ने ही जोरदार हमला करके फ्लैट टॉप से दुशमन को पूरी तरह से खदेड़ दिया।
ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव (परमवीर चक्र)
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जनपद के औरंगाबाद अहीर गांव में पैदा हुए योगेंद्र यादव सबसे कम आयु में ‘परमवीर चक्र’ प्राप्त करने वाले योद्धा हैं। पूरा परिवार ही सेना से संबंधित रहा है। लिहाजा योगेंद्र भी 1996 को सेना की 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हो गए। पूरे कारगिल युद्ध में टाइगर हिल का नाम बहुत बार लोगों ने सुना होगा। ये वो टाइगर हिल है। जिसपर दुशमन बैठ गया था और इससे नेशनल हाइवे को निशाना बनाया जा रहा था। योगेंद्र की कमांडो घातक प्लाटून को चोटी पर बने दुश्मन के तीन बंकर पर कब्जा करने का टास्क मिला। इन्हीं से वो हाईवे पर निशाना लगा रहा था। इस काम को अंजाम देने के लिए 16,500 फीट ऊंची बर्फ से ढकी, सीधी चढ़ाई वाली चोटी पार करना जरूरी था। अपना रस्सा उठाकर योगेंद्र अभियान पर चल पड़े। वह आधी ऊंचाई पर ही पहुंचे थे कि दुश्मन के बंकर से मशीनगन से गोलियां आने लगीं। दुशमन के राकेट से प्लाटून कमांडर तथा दो साथी मारे गए। गोलियों के बीच भी योगेंद्र आगे बढ़ते चले गए। बाकी पलटन वहीं रूकी रही। इस दौरान एक गोली उनके कंधे पर और दो गोलियां जांघ व पेट के पास लगीं लेकिन वह रुके नहीं और बढ़ते ही रहे। उनके सामने अभी खड़ी ऊंचाई के साठ फीट और बचे थे।
उन्होंने हिम्मत करके वह चढ़ाई पूरी की और दुश्मन के बंकर की ओर रेंगकर गए और एक ग्रेनेड फेंक कर उनके चार सैनिकों को वहीं ढेर कर दिया। इससे नीचे साथियों पर गोलाबारी कम हो गई और बाकी के साथी भी तेज़ी से ऊपर आने लगे। इस दौरान घायल योगेंद्र ने दूसरा बंकर भी तबाह कर दिया। तभी उनके पीछे आ रही टुकड़ी उनसे आकर मिल गई और आमने सामने की लड़ाई में कई साथियों को गंवाने के बाद योगेंद्र यादव और बचे हुए साथियों ने टाइगर हिल पर तिरंगा फहरा दिया।
शहीद कैप्टन कैंगुरूसे (मरणोपरांत महावीर चक्र)
मेघालय के कैप्टन कैंगुरूसे जब कारगिल युद्ध शुरू हुआ तो उस समय राजपूताना रायफल बटालियन में जूनियर कमांडर थे। उनकी दृढ़ता और दिलेरी के कारण उन्हें अपनी बटालियन के घातक प्लाटून का नेतृत्व सौंपा गया। 28 जून की रात कैप्टन कैंगुरूसे के प्लाटून को ब्लैक रॉक नामक टीले से दुश्मन को खदेड़ने की जिम्मेदारी मिली। टीले पर चढ़ाई के दौरान ऊपर से दुश्मन के लगातार हमले में कई सैनिक शहीद हुए और खुद कैप्टन को कमर में गोली लगी, लेकिन वे रुके नहीं। ऊपर पहुंचकर वे एक पत्थर की आड़ में टीले के किनारे लटके रहे। 16,000 फीट ऊंचाई और -10 डिग्री तापमान में बर्फ पर लगातार उनके जूते फिसल रहे थे। लौटकर नीचे आना ज्यादा आसान था, लेकिन वे अपने जूते उतारकर नंगे पैर टीले पर चढ़े और आरपीजी रॉकेट लांचर से सात पाकिस्तानी बंकरों पर हमला किया। दो दुश्मनों को कमांडो चाकू से मार गिराया और दो को अपनी रायफल से। दुश्मनों की गोलियों से छलनी होकर वे टीले से नीचे आ गिरे, लेकिन इतना कर गए कि उनके प्लाटून ने टीले पर कब्जा कर लिया। इस दिलेरी के लिए उन्हें मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।