नई शिक्षा नीति: बड़े सपनों के लिए कहां से आएगा पैसा, खड़े हुए सवाल

नई शिक्षा नीति: बड़े सपनों के लिए कहां से आएगा पैसा, खड़े हुए सवाल
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नई शिक्षा नीति: बड़े सपनों के लिए कहां से आएगा पैसा, खड़े हुए सवाल

विस्तृत रिपोर्ट

नई दिल्ली। देश की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनपीए) आने के बाद एक सपना जरूर बन गया है कि आने वाले दिनों में देश में पढ़ाई लिखाई सबके लिए होगी गरीब और अमीर का भेद नहीं होगा। यह शिक्षा नीति कब लागू होगी और कैसे लागू होगी इसको लेकर हम आपको आज बताएंगे।

2040 तक लागू करने का टारगेट

देश में शिक्षा कैसी होनी चाहिए इसको लेकर एक दिशा दी गई है और इसको मानना अनिवार्य नहीं है। जैसा कि शिक्षा एक राज्य का विषय यानी कनकरंट सब्जेक्ट है (केंद्र और राज्य कानून बना सकते हैं), एनईपी में जो भी सुधार बताए गए हैं उसे केंद्र और राज्य सरकार द्वारा मिलकर लागू करना है। लेकिन यह सब तुरंत फुरत लागू नहीं हो सकता। मौजूदा सरकार ने शिक्षा नीति को लागू करने के लिए 2040 तक का टारगेट तय किया है।

अब शिक्षा नीति को अंजाम देने के लिए जो सबसे जरूरी चीज है वह है पर्याप्त फंडिंग। 1968 में एनईपी सिर्फ फंड की किल्लत की वजह से पंगु साबित हुई थी।

लेकिन जब हमने विशेषज्ञों से बात की और
एनईपी को गहराई से पढ़ा तो पता लगा की इसमें तो सबसे बड़े सवाल का जवाब देने से बचा गया है वे यह सवाल है कि नई शिक्षा नीति को लागू करने के लिए हम फंड कैसे करेंगे।

दूसरे देशों के शिक्षा पर खर्च के मुकाबले हम कुछ नहीं

1968 की एनइपी के वक्त से देश की जीडीपी का 6 फ़ीसदी शिक्षा पर निवेश करने का वादा सुनने को मिल रहा है लेकिन 2017-18 में देश की शिक्षा पर सरकार का खर्च सिर्फ 2.7 फ़ीसदी था। दूसरी तरफ भूटान, जिंबाब्वे, स्वीडन, कोस्टा रिका और फिनलैंड जैसे छोटे देश में शिक्षा पर खर्च 7 फीसदी है, जबकि यूके नीदरलैंड, फिलिस्तीन, मलेशिया, केन्या मंगोलिया कोरिया और यूएसए शिक्षा पर 5 फ़ीसदी तक खर्च करते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि शिक्षा नीति में इस बात पर खुलकर नहीं कहा गया है की देश की शिक्षा को सरकार द्वारा पर्याप्त फंडिंग क्यों नहीं दी गई जब 30 सालों से इसे लेकर राजनीतिक वायदे किए जा रहे हैं।

अभी सरकार का खर्च कुछ बड़े सरकारी संस्थानों तक ही सिमटा

शिक्षा नीति में इस बात पर प्रतिबद्धता जताई गई है कि सरकार जीडीपी का 6 फ़ीसदी खर्च करने के साथ ही शिक्षा और रिसर्च पर अपना खर्च बढ़ाएगी। जैसे कि नेशनल रिसर्च फाउंडेशन को पर्याप्त फंडिंग देने की बात की गई है। अभी उच्च शिक्षा पर भारत सरकार के मौजूदा खर्च को देखें तो यह कुछ चुनिंदा नामी-गिरामी प्रतिष्ठित केंद्रीय फंडेड संस्थान आईआईटी, आईआईएम तक सिमट जाता है। शिक्षा से जुड़े विशेषज्ञ कहते हैं कि इन संस्थानों के ज्यादातर ग्रेजुएट भारत से बाहर रहना और काम करना पसंद करते हैं जिससे देश के विकास में उनकी भागीदारी ना के बराबर साबित होती है।

देश की शिक्षा पर सरकार द्वारा पर्याप्त फंड नहीं देने की वजह से ही निजी शिक्षा संस्थानों ने इसकी भरपाई शुरू कर दी थी 1991 से यह सिलसिला शुरू हुआ और आज तक हाल यह है कि 2015-16 के सर्वे में पाया गया कि उच्च शिक्षा में 78 फ़ीसदी कॉलेज प्राइवेट के हैं और 68 फ़ीसदी संस्थानों को ही सरकार की ओर से फंड मिलता है। सबको पता है कि बड़ी संख्या में भारतीय छात्र निजी शिक्षा पर निर्भर है और यह कॉलेज सिर्फ बच्चों की द्वारा दिए गए ट्यूशन फीस के फंड के बलबूते चल रहे हैं

सरकारी परोपकारी तरीके से फंड जुटाया जाए

हमारी नई शिक्षा नीति कहती है कि शिक्षा कोई कारोबार नहीं है और और इसे देते हुए लाभ कमाने की इच्छा करना गलत है। नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि सार्वजनिक और परोपकारी योगदान के जरिए शिक्षा में फंड लाया जाए। लेकिन यह तरीका कितना सफल होगा और जमीन पर कितना लागू होगा, इसे लेकर संशय है। परोपकारी योगदान का मतलब चैरिटी यानी चंदे की रकम से है।

शिक्षा नीति में कहा गया है कि माता-पिता को ट्यूशन फीस में मनमानी वृद्धि से सुरक्षित रखने के प्रयास भी किए जाएंगे। सभी शैक्षणिक संस्थानों को नॉनप्रॉफिट यानी गैर-लाभकारी आधारित होने के लिए कहा गया है लेकिन जैसा कि हमने पहले बताया कि इस शिक्षा नीति को केंद्र सरकार के साथ मिलकर राज्य सरकारों को लागू करना है तो यह राज्य सरकारों पर बहुत ज्यादा निर्भर करेगा कि वह निजी संस्थानों को किस तरह से फीस वृद्धि जैसे मुद्दों पर नियंत्रित करते हैं क्योंकि सालों से और इस समय तो खासकर कोविड-19 के दौरान निजी स्कूलों और कॉलेजों द्वारा फीस वृद्धि का मुद्दा बार-बार उछलता है, लेकिन माता-पिता को इससे बचा पाना सरकारों बस की बात नहीं होती। शिक्षा के शिक्षकों का कहना है कि सरकारी फंडिंग और एजुकेशनल लोन जैसे मुद्दों पर काफी बारीकी से चर्चा की जानी चाहिए थी जो की नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में दिखी नहीं। फंडिंग के मुद्दे पर ही राज्य सरकारों ने अब खुल कर बोलना शुरू कर दिया है। विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्य इस पर खुलकर बोल रहे हैं। दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया ने कहा है कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में फंडिंग के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं।

उन्होंने कहा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने की बात कही गई है। जबकि, यह वर्ष 1966 से कोठारी कमीशन के वक्त से ही कही जा रही है, लेकिन इसको लेकर अब तक कोई कानून बनाने की बात नहीं हुई है।
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धीरज कुमार

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