
वाह वाही लूटने के लिए अच्छा है मातृभाषा में पढ़ाई का आइडिया
अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ाई का मीडियम बदलना मुश्किल
नई दिल्ली।
नई शिक्षा नीति में मोदी सरकार को इस बात की वाहवाही चारों तरफ से मिली है कि उसने पांचवी कक्षा तक मातृभाषा में पढ़ाई करने का सुझाव इस नीति में दिया है लेकिन यह सुझाव कोई नया नहीं है, देश के ज्यादातर सरकारी स्कूलों में पहले से ही ऐसा हो रहा है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या निजी स्कूल सरकार के इस सुझाव को मानेंगे।
दिल्ली पब्लिक स्कूल, गोयनका, रेयान, कॉन्वेंट और दून जैसे नामी-गिरामी बड़े समूह के स्कूल जिनकी नींव ही अंग्रेजी की पढ़ाई पर ही खड़ी हुई है, वह क्या अपना मीडियम आफ इंस्ट्रक्शन बदलेंगे।
तो जवाब है नहीं क्योंकि कई निजी स्कूल इसे लेकर पहले ही हाथ खड़े कर चुके हैं और शिक्षाविदों का मानना है कि वह अपने मीडियम ऑफ इंस्ट्रक्शंस यानी पढ़ाई के माध्यम को बदलने के बारे में सोचेंगे भी नहीं। कई स्कूल तो इनकार भी कर चुके हैं।
जहां तक सरकार का सवाल है तो यह शिक्षा नीति पहले से ही सिर्फ सुझाव के तौर पर है और यहां तक कि राज्यों पर भी यह अनिवार्य रूप से लागू नहीं होगी। वह चाहे तो इसे सुझाव के तौर पर मान सकते हैं, क्योंकि शिक्षा राज्यों का विषय होता है।
शिक्षा मंत्रालय खुद कह रहा है अनिवार्य नहीं है यह नियम
मानव संसाधन विकास मंत्रालय जिसका नाम बदलकर शिक्षा मंत्रालय हो गया है, उसका भी यही कहना है की सरकार का पांचवी कक्षा तक तक मातृभाषा में पढ़ाई करने का सुझाव राज्यों के लिए कोई अनिवार्य नहीं है। मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा कि शिक्षा राज्य का विषय है कनकरंट लिस्ट में आता है, इसीलिए नीति में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि ” जहां भी संभव हो ” बच्चे अपनी मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई करेंगे।
देश का आम से आम आदमी अपने बच्चे को अंग्रेजी में पढ़ाना चाहता है, वह चाहता है कि उसका बच्चा फर्राटे से अंग्रेजी बोले और दुनिया के गणमान्य लोगों के साथ खड़ा हो सके। बड़े शहरों से बाहर छोटे शहरों या गांव में पढ़ने वाले बच्चे अंग्रेजी की वजह से ही पिछड़ जाते हैं क्योंकि वह इसे अपना नहीं पाते जबकि उनकी शैक्षिक योग्यता बहुत ज्यादा होती है। जबकि सिर्फ 10वीं या 12वीं कक्षा में पास लड़का या लड़की अगर फर्राटेदार अंग्रेजी बोल पाता है तो उसे किसी भी बड़े महानगर ना बड़े शहर में आसानी से ठीक-ठाक सैलरी वाली नौकरी मिल सकती है जबकि गांव या छोटे शहर से आने वाला व्यक्ति वहां के स्कूल या कॉलेज से पीएचडी हो लेकिन अगर अंग्रेजी सही से नहीं आती तो वह पिछड़ा ही रह जाएगा। लॉकडाउन के दौरान ऐसे कई उदाहरण सामने आए हैं कि जो लोग अंग्रेजी नहीं बोल पाते थे लेकिन उनकी शैक्षिक योग्यता बहुत ज्यादा थी, उन्हें किसी सोसाइटी में चौकीदारी, सब्जी बेचनी और ऑटो चलाना या सफाई करने जैसे काम भी करने पड़ रहे हैं। तो सुनने में तो बहुत अच्छा लगता है की मातृ भाषा या क्षेत्रीय भाषा में पढ़ाई लेकिन यह असंभव है भाई। दिल्ली समेत बड़े शहरों के बड़े स्कूलों में अंग्रेजी की पढ़ाई की वजह से ही मां बाप नर्सरी के दाखिले के लिए अपने जूते चप्पल घिस देते हैं। इसलिए भले ही मोदी सरकार ने शिक्षा नीति में यह प्रावधान अपने आका आरएसएस को खुश करने के लिए रखा हो लेकिन जमीन पर इसके अमल होने की बहुत कम गुंजाइश है।
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धीरज