
भारत और चीन की सेना सीमा पर बिलकुल आमने सामने है। हालात ये है कि दोनों सेनाओं के मोर्चे एक दूसरे के बिलकुल सामने हो गए हैं और लड़ाई की तैयारी दोनों तरफ हो गई है। इस बीच सेना प्रमुख जनरल एम एम नरवने ने कहा है कि हमारे जवानों का हौसला बुलंद है और दुनिया के सबसे बेहतरीन सैनिक हमारे पास हैं। लेकिन एक बात जो भारत की सेना को चीन की सेना से बहुत बेहतर बनाती है वो बर्फ में लड़ने के लिए भारतीय सैनिकों की महारथ। जानकार बताते हैं कि भारत के सैनिकों के पास कई ऐसी छुपी हुई टुकड़ियां है जोकि इस तरह की लड़ाई लड़ने में दुनिया की सबसे खतरनाक मानी जाती है।
ऐसी ही एक रेजिमेंट है टूटू रेजिमेंट
कई बार रायसिना हिल्स के पीछे वाली सड़क पर जाते हैं तो वहां एक छोटी सी सड़क मिलती है जोकि ठीक रक्षा मंत्रालय के पीछे वाली सड़क है। इसकी टूटू सड़क कहा जाता है। अब कई बार ये समझ नहीं आता कि ये टूटू क्या है। तो चलिए आपको बताते हैं कि क्यों भारत की सबसे खतरनाक रेजिमेंट में से एक टूटू को माना जाता है।
टूटू रेजीमेंट भारतीय सैन्य ताकत का वह हिस्सा है जिसके बारे में बहुत कम जानकारियां ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। यह रेजीमेंट आज भी बेहद गोपनीय तरीके से काम करती है और इसके होने का कोई प्रूफ भी पब्लिक नहीं किया गया है।
टूटू रेजीमेंट की स्थापना साल 1962 में हुई थी। ये वही समय था जब भारत और चीन के बीच युद्ध हो रहा था। तत्कालीन आईबी चीफ भोला नाथ मलिक के सुझाव पर तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टूटू रेजीमेंट बनाने का फैसला लिया था।
इस रेजीमेंट को बनाने का मकसद ऐसे लड़ाकों को तैयार करना था जो चीन की सीमा में घुसकर, लद्दाख की कठिन भौगोलिक स्थितियों में भी लड़ सकें। इस काम के लिए तिब्बत से शरणार्थी बनकर आए युवाओं से बेहतर कौन हो सकता था। ये तिब्बती नौजवान उस क्षेत्र से परिचित थे, वहां के इलाकों से वाकिफ थे।
जिस चढ़ाई पर लोगों का पैदल चलते हुए दम फूलने लगता है, ये लोग वही दौड़ते-खेलते हुए बड़े हुए थे। इसलिए तिब्बती नौजवानों को भर्ती कर एक फौज तैयार की गई। भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल सुजान सिंह को इस रेजीमेंट का पहला आईजी नियुक्त किया गया।
सुजान सिंह दूसरे विश्व युद्ध में 22वीं माउंटेन रेजीमेंट की कमान संभाल चुके थे। इसलिए नई बनी रेजीमेंट को ‘इस्टैब्लिशमेंट 22’ या टूटू रेजीमेंट भी कहा जाने लगा।
अपने अदम्य साहस का प्रमाण टूटू रेजीमेंट ने 1971 के बांग्लादेश युद्ध में भी दिया है, जहां इसके जवानों को स्पेशल ऑपरेशन ईगल में शामिल किया गया था। इस ऑपरेशन को अंजाम देने में टूटू रेजीमेंट के 46 जवानों को शहादत भी देनी पड़ी थी। इसके अलावा 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार, ऑपरेशन मेघदूत और 1999 में हुए करगिल युद्ध के दौरान ऑपरेशन विजय में भी टूटू रेजीमेंट ने अहम भूमिका निभाई।
टूटू रेजीमेंट के काम करने के तरीकों की बात करें तो आधिकारिक तौर पर यह भारतीय सेना का हिस्सा नहीं है। हालांकि, इसकी कमान डेप्युटेशन पर आए किसी सैन्य अधिकारी के ही हाथों में होती हैं। पूर्व भारतीय सेना प्रमुख रहे दलबीर सिंह सुहाग भी टूटू रेजीमेंट की कमान सम्भाल चुके हैं। यह रेजिमेंट सेना के बजाय रॉ और कैबिनेट सचिव के जरिए सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है।
इसकी अगली कड़ी में बताएंगे कि माउंटेन रेजिमेंट कैसे करती है ट्रेनिंग…